चिन्मय मिशन साहित्य >> वाक्य वृत्ति वाक्य वृत्तिस्वामी चिन्मयानंद
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सबसे प्रारम्भिक पुस्तक ‘तत्त्व-बोध’ मानी जा सकती है। उसमें विचार किये गये विषयों पर विस्तार सहित चिन्तन करने के लिए ‘आत्म-बोध’ पुस्तक लिखी गयी।
प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश
भूमिका
शास्त्रों में वर्णित विचारों के सूक्ष्म जगत् में निर्बाध गति से प्रवेश
करने में सहायक पुस्तकों को प्रक्रिया ग्रन्थ कहते हैं। शंकराचार्य ने ऐसी
अनेक प्रारम्भिक पाठ्य पुस्तकें लिखकर वेदान्त के विद्यार्थियों को दी
हैं। हर पुस्तक का स्तर भिन्न है। वे सब अलग-अलग स्तर के विद्यार्थियों के
हेतु हैं।
इस प्रकार की सबसे प्रारम्भिक पुस्तक ‘तत्त्व-बोध’ मानी जा सकती है। उसमें विचार किये गये विषयों पर विस्तार सहित चिन्तन करने के लिए ‘आत्म-बोध’ पुस्तक लिखी गयी। इन दो ग्रन्थों में वेदान्त के विद्यार्थी जिन विचारों का अवलोकन करते है, उनका विस्तृत निरूपण आचार्य के महिमामय ग्रन्थ ‘विवेक-चूड़ामणि’ में मिलता है। वह ग्रन्थ तो मानों ज्ञान का दिव्य राजभवन है।
सम्भवतः शंकराचार्य ने समझा होगा कि इन तीन ग्रन्थों से अद्वैत वेदान्त के शान्त और आनन्दमय सिद्धान्तों का ज्ञान तो विद्यार्थी को हो सकता है किन्तु उनमें उपनिषदों के महावाक्यों का रहस्यमय और सुन्दर भाव पूर्णतः व्यक्त न होगा।
वेदान्तियों ने चार महाकाव्य माने हैं। वे अपरिच्छिन्न ब्रह्म की परिभाषा देते हैं, साधक को उसका अनुभव पाने का साधन बताते हैं, उसका अनुभव प्राप्त करने पर साधक की आन्तरिक दशा का निरूपण करते हैं और उनमें आत्मानुभूति की अवस्था में आनन्द की गर्जना सुनाई देती है।
‘प्रज्ञानं ब्रह्म’ वस्तु और व्यक्तियों के सतत परिवर्तनशील दृश्यमान जगत् के परे विद्यमान परम सत् की परिभाषा देता है। ‘तत्त्वमसि’ उपदेश-वाक्य है। साधक अपने आत्म-चिन्तन के क्षणों में अनुभव करता है और पूर्ण तृप्ति के साथ कहता है ‘अयमात्मा ब्रह्म’। अन्त में परम पद प्राप्त कर वह साधक अपने हृदय में आनन्दमय उद्घोष करता है और पूर्ण तृप्ति के साथ कहता है ‘अहं ब्रह्मास्मि’।
इस प्रकार की सबसे प्रारम्भिक पुस्तक ‘तत्त्व-बोध’ मानी जा सकती है। उसमें विचार किये गये विषयों पर विस्तार सहित चिन्तन करने के लिए ‘आत्म-बोध’ पुस्तक लिखी गयी। इन दो ग्रन्थों में वेदान्त के विद्यार्थी जिन विचारों का अवलोकन करते है, उनका विस्तृत निरूपण आचार्य के महिमामय ग्रन्थ ‘विवेक-चूड़ामणि’ में मिलता है। वह ग्रन्थ तो मानों ज्ञान का दिव्य राजभवन है।
सम्भवतः शंकराचार्य ने समझा होगा कि इन तीन ग्रन्थों से अद्वैत वेदान्त के शान्त और आनन्दमय सिद्धान्तों का ज्ञान तो विद्यार्थी को हो सकता है किन्तु उनमें उपनिषदों के महावाक्यों का रहस्यमय और सुन्दर भाव पूर्णतः व्यक्त न होगा।
वेदान्तियों ने चार महाकाव्य माने हैं। वे अपरिच्छिन्न ब्रह्म की परिभाषा देते हैं, साधक को उसका अनुभव पाने का साधन बताते हैं, उसका अनुभव प्राप्त करने पर साधक की आन्तरिक दशा का निरूपण करते हैं और उनमें आत्मानुभूति की अवस्था में आनन्द की गर्जना सुनाई देती है।
‘प्रज्ञानं ब्रह्म’ वस्तु और व्यक्तियों के सतत परिवर्तनशील दृश्यमान जगत् के परे विद्यमान परम सत् की परिभाषा देता है। ‘तत्त्वमसि’ उपदेश-वाक्य है। साधक अपने आत्म-चिन्तन के क्षणों में अनुभव करता है और पूर्ण तृप्ति के साथ कहता है ‘अयमात्मा ब्रह्म’। अन्त में परम पद प्राप्त कर वह साधक अपने हृदय में आनन्दमय उद्घोष करता है और पूर्ण तृप्ति के साथ कहता है ‘अहं ब्रह्मास्मि’।
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